ढाई दिन की तनख्वाह
सुनो ! जरा दो चार सौ रुपये होंगे?
शीला– ये लो ! आज आप ये पहन कर दफ्तर (ऑफिस) जाओ । इसमें तुम बहुत जचोगे।
शीला – रहने दो।
मदन ने अपनी शर्ट उतारी और टी शर्ट पहन शीला को गले लगाकर ,अपने दफ्तर के लिए निकल गया। शीला की आँखें नम थी। उसने सामने टेबल से सुई धागा निकाला और मदन की कमीज सिलने लगी। तभी उसे याद आया, पिछले महीने ही उसने दूसरी कमीज को भी फटा हुआ देखा था। पर काम के चलते वो उसे सिलना भूल गई थी। वो भागी -भागी छत पर गई, और कमीज उतार कर नीचे ले आयी। फिर दोनों कमीजों को सुई से सिलने लगी। और खुद से ही कहने लगी।
शीला- मुझे माफ़ करना प्रभु! मैंने मदन से झूट कहा , मेरे पास पैसे थे पर वो पैसे मैंने मशीन के लिए जमा किये हैं । ताकि मैं सिलाई करके मदन का बोझ हल्का कर सकूं।
उधर मदन ऑफिस में ये सोचकर परेशान है कि, 8000 में घर का खर्चा कैसे चलेगा। अभी उसकी जॉब को भी ज्यादा टाइम नहीं हुआ था। तो अनुभव की कमी के कारण उसे कहीं और दूसरी जॉब भी नहीं मिल पाएगी।
मदन की कंपनी में महीने की पहली तारीख को ही तनख्वा बांटी जाती है। तभी दूसरे साथी ने जवाब दिया।
“यार आजकल के बच्चों की डिमांड पूरी करना कभी- कभी महाभारत हो जाती है। ऊपर से हाथ में तनख्वा बाद में आती है। उसके जाने के बंदोबस्त (हिसाब) पहले हो जाते हैं”।
ये सब सुनकर मदन चुप हो जाता है। और उसे अपनी सुबह की बात याद आ जाती है। इधर घर में शीला अपनी बेटी वन्दु को स्कूल से लेकर आती है। वन्दु 8 साल की है और कक्षा 2 में पढ़ती है। शीला वन्दु को खाना देकर सुला देती है। और एक घंटे के लिए एक किलोमीटर दूर, सिलाई सीखने जाती है। शीला ने बाहरवीं तक पढ़ा है। पर घर के हालत और आस -पास का माहोल देख अभी उसने आगे ना पढ़ने का मन बनाकर, सिलाई करने का ही निर्णय किया। जबकि शीला को पढ़ने का बहुत शौक था । लेकिन कम उम्र में शादी होने के कारण उसकी इच्छाओं ने उसके हालातों के सामने घुटने टेक दिए। शीला से मदन का अपने लिए मन मारना अच्छा नहीं लगता था। इसलिए उसने चोरी छिपे मशीन सीख ना शुरू कर दिया। और दो महीने सीखने के कुछ समय बाद वो अपने लिए हाथ की एक मशीन ले आती है। और कपड़े सिलना शुरू कर देती है। मदन को ये बात मालूम नहीं होती है। क्योंकि शीला मदन को अपने हाथ से नई कमीज सिलकर तोहफा देना चाहती थी। वो रोज दिन में वन्दु को सुलाकर अपनी सिलाई करती है और रात को मशीन चारपाई के नीचे छुपा देती है। ईसी तरह जैसे- तैसे ये महीना भी खत्म हो गया । और महीने की पहली तारीख को मदन अपनी तनख्वा लेकर घर आया। दोनों खुश हुए । तभी वन्दु जिद करने लगी कि, उसे बड़ी डॉल (गुड़िया) चाहिए । तो मदन उसे वादा करता कि, कल लेकर आएगा। वन्दु पापा के गले लगती है और खेलते -खेलते उसी की गोदी में सो जाती है। मदन उसे चारपाई पर सुला देता है। फिर दोनों भी खाना खाकर सो जाते हैं। रोज की तरह अगले दिन भी मदन अपने दफ्तर जाता है और शीला अपने कामों में लग जाती है। और दिन में राशन पानी लेकर वन्दु को स्कूल से घर ले आती है। ईसी तरह दो दिन बीत जाते हैं। और तनख्वा खत्म हो जाती है। अगली सुबह मदन दफ्तर के लिए तैयार होता है। तो शीला मदन को नई कमीज देकर कहती है।
मदन– अरे इसकी क्या जरूरत थी। सिल तो दिया था तुमने, और वेसे भी कमीज का बगल कौन देख रहा है। लाना ही था तो वन्दु को एक फ्रॉक ला देती।
शीला – आप प्यार से पहन रहे हो, या डांट कर पहनोगे। अच्छा ये पहनो फिर एक खुशी की बात बताऊँगी।
मदन- तुमने ? ये सब कबसे और बताया क्यों नहीं। मैं मना थोड़े न करता।
शीला मदन के नजदीक जाकर उसका कॉलर सही करते हुए कहती है।
शीला- अगर बता देती तो आपके चेहरे पर ये ख़ुशी कैसे ला पाती। मैं जानती हूँ तनख्वा चाहे कितनी भी हो, ढाई दिन से ज्यादा नहीं चलती है। जब आपको सेलेरी मिलती है, तो बड़ी खुशी होती है। पर घर आते ही, कमरे का किराया, वन्दु के स्कूल की फीस, घर का राशन, सब्जी, दूध सब दो ढाई दिन में खत्म हो जाता है। और आपके लिए कुछ बचता ही नहीं।
शीला- मैंने सिलाई सिर्फ इसलिए शुरू की, ताकि जो हमारी खुशी के लिए आप अपने अरमानों को दरकिनार कर देते हैं। उन अरमानों को मैं पूरा करूँ। अब से आप घर का खर्चा देखोगे, और मैं हम तीनों की ख्वाहिशें ।
हंसते, मुस्कुराते, स्वस्थ रहिये। ज़िन्दगी यही है।