मृणाल रतूड़ी के नए गीत में दिखा पिता पुत्र का मार्मिक प्रेम
एक समय वो था जब नरेंद्र सिंह नेगी के गानों को सुनकर सुकून महसूस होता था, क्योंकि उनके गाने ज़िंदगी से जुड़े हुए महसूस होते थे। फिर गानों के स्वरूप में आते बदलावों ने बहुत मोड़ ले लिए। नए जमाने के साथ गीत- संगीत और सिनेमा हर जगह परिवर्तन देखने को मिला। ये परिवर्तन हर भाषायी गीत-संगीत में देखने और सुनने को मिलता रहा।
लंबे लंबे अंतराल के बाद कुछ ऐसा सुनने और देखने को मिलता जिसे हम खुद की ज़िंदगी से जुड़ा महसूस करते है।
आज एक ऐसा ही गीत सुनने में कर्णप्रिय लगा। गीत सुनकर भावनाओं ने रह रह कर बचपन और जवानी दोनों को आँखों के पोर पर ला खड़ा कर दिया। अश्रुओं ने अतीत के पन्ने खोलकर हथेली पर रख दिया। ऐसा इसलिए भी कि इस गीत से कहीं न कहीं मैं या कई और लोग भी खुद को जुड़ा पा रहे होंगे।
‘मेरा बाबा जी’ गीत के नाम से ही अपनापन सा हो गया। फिर जब गीत को सुना तो कई यादों से दिल की दहलीज पर क़दम सहसा रख दिया।
एक माँ के संघर्षों की कई व्याख्याएँ सुनने को मिल जाती है मगर एक पिता के साथ बिताए पलों को गीत के माध्यम से पिरोना बहुत कम देखने सुनने को मिलता है।
अभी दो दिन पहले ही मृणाल रतूड़ी का एक पहाड़ी गीत ‘मेरा बाबा जी’ उन्हीं के ऑफिसियल चैनल पर अपलोड हुआ है। गीत के न केवल शब्द मार्मिक है वरन संगीत और फिल्मांकन भी उम्दा तरीके से हुआ है।
गीत के बोल सुधाकर भट्ट ने लिखे हैं और संगीत अश्वजीत सिंह ने दिया है। कुलदीप सकलानी और रंजीत राणा ने अपने-अपने क़िरदारों को बखूबी निभाया।
कुल मिलाकर देखा जाए तो गाना बहुत सिंपल है मगर एक पिता और बेटे के चित्रण को जिस तरह पेश किया गया है वो कमाल है।
गीत के विषय में-
गीत में दिखाया गया है कि किस तरह एक पिता अकेले होकर भी अपने दुःख दर्द भुलाकर… अपने बच्चे के चेहरे पर हँसी और ख़ुशी बरकरार रखने के लिए सैदव तत्पर रहता है।
जैसे बचपन में बच्चे के उज्ज्वल भविष्य के लिए उसके साथ कठोर बर्ताव कर खुद अकेले में पीड़ा महसूस करना, उँगली पकड़कर उसे चलना सिखाना, ख़ुद धूप, बारिश, आँधी तूफान की परवाह किये बगैर काम करना ताकि अपने बच्चों के लिए कोई कमी न हो। बीमार हो जाने पर भी ये दिखाना कि मैं ठीक हूँ। बच्चे की शरारत पर बहुत प्यार लुटाने का मन होना मगर काम के चलते वो भी नसीब न होना।
ये सब त्याग एक पिता ही कर सकता है।
गीत को सुनकर कुछ मेरा बचपन याद आ गया।
पैरों के वो छाले जो बाबा ने छिपाए
घोड़ा बन बाबा, पीठ पर बिठाए।
ये हैं पिता जो यही सोचते रहते हैं कि घर की छत न टपके और घर का चूल्हा खाली न रहे। वह ख़ुद से दूर हुए, हमसे दूर हुए। खुद भूखे रहे ताकि हमारे लिए खाना कम न पड़े। चलते रहे भटकते रहे ताकि हम पढ़ते रहे। हमारा लत्ता कपड़ा सब टकाटक रहे, दुनिया की भीड़ में हम किसी से कम न लगे। ख़ुद के जूते फटे मगर खिलोने भर भर के लाये। हमारी इच्छाओं, हमारी जरूरतों को सबसे ऊपर रखा।
ये है मेरे बाबा जी।
एक दिन आएगा जब बच्चे नाम करेगें। अपने पैरों पर खड़े होंगे। इसी आस में वक़्त कट जाता है और कब जवानी से बुढापा आ जाता है ये ख़बर ही नहीं होती।
गीत में अपना बचपन अपने पिता के त्याग और उसके प्रेम को एक बेटा समझता है और चला आता है अपने बाबा से मिलने। सच कहूँ बहुत जब एक पिता और बेटे को गले मिलते देखा तो ऐसा लगा मैं ही हूँ उस क़िरदार में।
बहुत सुंदर गीत मृणाल रतूड़ी।
गीत यहाँ सुना जा सकता है।
सचमुच सुंदर गीत है…
जी सही कहा… आभार…