जलन- आप जल तो लोगे

हम लोग अपनी ज़िंदगी में कितने स्वार्थी क़िस्म  के हो गए हैं ना..? ये मेरा वो मेरा, इसका-उसका,  ये “मैं” नामक अहंकार हमको दिन ब दिन जकड़ते जा रहा रहा है। मुझे इतना चाहिए, मुझे सब चाहिए। इस तरह के तमाम ख़यालात  हमारे ज़ेहन में कभी ना कभी दस्तक दे ही जाते हैं। मुझे ये समझ नहीं आता कि, इन अज़ीब -ओ-ग़रीब सोच के साथ हम क्यों जिए जा रहें । और आखिर कब तक । हमारे दिमाग़ में बस एक बात दिन रात घूमती है कि, हमको बस आगे निकलना है। फिर उस होड़ में हमारे पैरों से कितनों के सपने, क्यों ना कुचल गए हों, हमें कोई लेना देना नहीं।  ये सबके साथ होता है। मैरे साथ भी। कहीं ना कहीं मैंने भी जाने -अनजाने में किसी को तकलीफ दी होगी। उससे आगे निकलने का लालच रखा होगा। लेकिन जब आत्ममंथन किया तो एहसास भी हुआ। और उसे सुधारने कि कोशिश भी की। हमें आदत सी हो गई हैं इन सबकी। क्योंकी सबको बस एक झूठी  हंसी चेहरे पर लगाकर जीने में मज़ा आता है। वैसे ये सब लिखने का मेरा मकसद किसी को ज्ञान बाँटना बिल्कुल भी नहीं है। क्योंकि मैं इस क़ाबिल नहीं कि, किसी को ज्ञान बाँट सकूँ, सब समझदार हैं । वो तो कल मेरी किसी से फोन पर बात हो रही थी। तो ऐसा ही कुछ ज़िक्र हुआ, और वो बातचीत मुझे ये लिखने पर मजबूर कर गई। अच्छा है या बुरा ये नहीं पता. बस मन का ग़ुबार बाहर निकल गया।  

आप जल तो लोगे,
ख़ुद  को समझा तो लोगे।
मैं बढ़ गया आगे,
ख़ुद  को बहला भी लोगे।
मैं नदी हूँ फिर भी बह लुंगी।
तेरी जलन को अपनी धार से, मिटा भी दूंगी।।
न नुकसान मेरा, ना फायदा तेरा।
न ज़मीन तेरी, न चाँद मेरा।।
है ये रात तेरी, दिन भी तेरा।
ये सब तेरा, सब मेरा, या है सबका।।
तो फिर क्यों, जीत हार की जंग है।
जग में या तो जीत है, या हार है। ।
अब तुम्हें तय करना है,
कि चलना है या जलना है।
एहसास इस जलन का, जब होगा तो कैसे संभलोगे।
पछतावे के दर्द से, कैसे उबर लोगे।।

आप जल तो लोगे,
ख़ुद को समझा तो लोगे।

ये अहम ये घृणा, ये खेद ये तृष्णा।
ना जात ये तेरी, न आग ये मेरी।।
ना रूप तेरा ये, ना रंग है मेरा।
तू आगे मैं पीछे, मैं आगे तू पीछे। ।
ये खेल है ज़िंदगी का।

तू मुझमें मैं तुझमें, तू सबमें, रब सबमें।।
ये मेल है बंदगी का।
मुश्क़िल की उलझन, कैसे है टूटे। ।
ख़ुशियों की बारात, कितनी जो बरसे।
रानी या राजा, मैं ही जहां में।।
कब तक बनेंगे, और क्यों बनेंगे।
हँसके कुचलके, औरों के सपने।।
यूँ तोड़के, ख़ुश कब तक रहोगे।
आखिर ये बोझ कांधे पर, कब तक रखोगे। ।

आप जल तो लोगे,
ख़ुद को समझा तो लोगे।

तेरा -मेरा इतना -उतना,
मैं ये -मैं वो,
ये लालच की पुड़िया, न बाँधे रखो तुम।
हक़ीकत से वाकिफ़, जिस दिन हो जाओ।।
डर है कि, कैसे निकलोगे उस दिन।
तुमने बनाई अपनी ही दुनिया।
निश्चय किया, उसमें तुमने ही रहना।
तुमने खरीदा सारे नशों को।
सबको धकेला, बस रोका था खुद को।
कब तक करोगे ये सब चालाकी।
तय है कि ईक दिन, सभी को है मरना।
सवालों के घेरे, ना छोड़ेंगे पीछा।
अपने ही कर्मों को, पड़ता भुगतना।
अब भी सुधर जा, ए इंसानी फ़ितरत ।
 कब तक, अहंकार लेकर जियोगे।
रख शांति,थोड़ा अंदर भी अपने।
वरना आंखों को नींद में, कैसे सुलाओगे ।

आप जल तो लोगे,
ख़ुद को समझा तो लोगे।

तो ए साथी, न जल, न तड़प, न सहम न भटक।
हाथ मिला के आ, प्यार का एक ख़ूबसूरत घर बनाते हैं।
जहाँ भावनाओं की कुछ बस्ती, अपना जीवन बसर कर सके।

उम्मीद करती हूँ आपको कविता पसंद आई होगी। आप मुझे अपनी राय और सुझाव कमेन्ट करके भी बता सकते हैं।
हंसते, मुस्कुराते, स्वस्थ रहिये। ज़िन्दगी यही है। 
 
आप मुझसे इस आईडी पर संपर्क कर सकते हैं.
sujatadevrari198@gmail.com
 
© सुजाता देवराड़ी

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