सरहद पर

||सरहद पर||
 
 स देश के हर नागरिक का सीना, तब चौड़ा हो जाता है।
जब शरहद पर हर सैनिक, एक- एक करके जान गवांता है।।
आतंक ने दहशत फैलाई, तुम चुप्पी साधे बैठे थे।
पालन कर आदेशों का, अपनी जान गवांकर चले गए।।
बहती गई वीर के लहू से नदियां, तुम देख तमाशा खड़े रहे।
कितनी बेशर्मी आंखों में , खाली बंदूक थमाकर चले गए।।
वाह रे सत्ता के नेताओ, तुमको तो अब क्या कहना है।
गर भाषण बाज़ी से फ़ुरसत हो, तब छलनी सीना दिखता है।।
जब शरहद पर हर सैनिक, एक- एक करके जान गवांता है।
इस देश के हर नागरिक का सीना, तब चौड़ा हो जाता है।।
हर व्यक्ति यही कहता रहता, घुसकर मारो आतंकी को।
कोई छोड़ -छाड़ घर अपनों को, जाता नहीं सैनिक की रक्षा को।।
भारत की रक्षा का ज़िम्मा, केवल फौज़ी का होता है।
ये सवाल है मेरा देश के  हर नागरिक से।
बाकी लोगों के सीने में, क्या मिट्टी का दीपक जलता है।
सोशल मीडिया और सड़कों पर, जितना शोर मचाते हो।
उतना थोड़ा हिम्मत करके, शरहद पर क्यों नहीं जाते हो।
सबकी साँसों का गुल्लक भरके, खुद की सांसे कम करता है।
दिन रात वो नींदे छोड़ के अपनी, सबके सपनों को जीता है।
जब शरहद पर हर सैनिक, एक- एक करके जान गवांता है।।
इस देश के हर नागरिक का सीना, तब चौड़ा हो जाता है।
दो चार दिनों की शोक सभा, फिर भूल जाते वो क़ुरबानी।
चाहे नेता या युवा हो कोई, सबकी बंद हो जाती मुंह ज़ुबानी।
जब राजनीति की रैली थी, करोड़ों की भीड़ उमड़ी थी।
तब ना पैर थके, ना मुंह चुप रक्खा, नारों की छाई बुलंदी थी।
अब दुश्मन हमला बोल रहा है, माँ के लाल शहीद हुए हैं।
बहना की राखी टूट गई, सिंदूर सुहाग भी छीन गये हैं ।
हर वीर की  माँ ,बेटी, बहना, बीवी सब शोक में डूब गए।
सुन लो देश के नेताओ, तुम  नियमों में अटके ही रहे ।
एक बार तो कह देते वीरों से, तुम राख बना दो दुश्मन को।
तिरंगे में लिपटा सैनिक, फिर आंखें मूंद नहीं आता।
संविधान में संशोधन कर लेते , वो बना ही देश की रक्षा के लिए।
सरकार के आदेशों की बलि, ना सैनिक को चढ़ना पड़ता।
अब भी ना किया कोई फैसला गर तो, देश खत्म हो जाएगा।
सत्ता कुर्सी सब मिट जाएगी, जब भगवान कहर बरसायेगा।
हर देश वासी से विनती है, चलो अपना देश बचाते हैं।
वर्दी ना सही इस ज़िस्म पे तो क्या, सीने में तिरंगा लहराता है।
स देश के हर नागरिक का सीना, तब चौड़ा हो जाता है।
जब शरहद पर हर सैनिक, एक- एक करके जान गवांता है।
 
ये कविता “उत्तराखंड मंथन” नामक मासिक पत्रिका अक्टूबर 2019 के संस्करण में छपी।   
इस कविता पर आपके क्या विचार हैं, मुझे कमेंट करके जरूर बताएं |

 
हँसते, मुस्कुराते, स्वस्थ रहिये। ज़िन्दगी यही है।  

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sujatadevrari198@gmail.com
© सुजाता देवराड़ी

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