मैं तप रही थी
थी अकेली सोच उस पल, जैसे हवा गुब्बारों सी ।।
चीखी मैं चिल्लाई भी, हिम्मत थी जब तक आखों में।
टूटने लगी है साँसें, बहती नदी के किनारों सी ।।
ख़ामोश है बंज़र ज़मी, अंधी है कुछ दिखता नहीं।
सैलाब उमड़ा आंसुओं का , ज्वालामुखी फटता नहीं ।।
बहरे से क्यों थे पेड़ पौधे, सुन आवाज़ उन दरिंदों की ।
तूफान बनकर टूट जाते, तो दुनियां मेरी लुटती नहीं ।।
टुकड़े -टुकड़े कर दिए इज्ज़त मेरी बाज़ारों सी ।
मैं तप रही थी घास के, उन पत्तों पर अंगार सी।।
देश मेरा कहता है, कानून है इंसाफ़ का।
आज़ाद है हर देशवासी, ले सके ख़ुद फैसला।।
एक तरफ़ लहरा रहा, तिरंगा भारत माता का।
एक तरफ़ बिकता रहा, आँचल मेरे सम्मान का।।
शोक के दो चार दिन, नारे लगाते ख़ूब लोग।
कचहरी और कोट के, चक्कर लगाते खूब लोग।।
कटघरे तक ले गए , माँ बाप की इज्ज़त मेरी ।
अबला बनाकर मुझको, इस कानून ने ही पेश की ।।
सिल चुके थे लफ़्ज़ मेरे, वक़्त की ये मार थी।
तपती रही मैं घास के उन पत्तों पर अंगार सी।।
नोट- ये कविता हलंत पत्रिका के जनवरी 2020 के अंक में प्रकाशित हुई थी।
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© सुजाता देवराड़ी