तेरा आँगन सजा करता था ।
आज ममता की वही आस, पड़ी खाली है।।
रात इन आँखों ने जागकर, कई नींदे क़ुर्बान की।
आज इन पलकों की देहरी पर, सुनी रुलाई है।।
नानी जी |
पर ज़माने की ज़िद ने, तेरी हर बात झुठलाई है।।।
तुझे गले लगाने का मन था तो, देखने आयी थी कल।
तेरे बिस्तर को देखा, तो ज़मीं पर घास बिछाई थी।।
मैं और नानी |
नमन तुझे मेरा, जो अकेले लड़ रही ज़िन्दगी की लड़ाई है।।
बताया तूने मुझे कि, तेरी दशा पर रोती है तू आज भी।
जीने की इच्छा अब न रही, ख़ुदा से ये अदारदास लगाई है।।
कभी तेरा बनाया ये, आंगन सजा करता था ।
आज इनके पैरों पर ,जमी काई है।।
जब ज़िंदगी में आपने बहुत कुछ कमाया हो, औरजरूरत पड़ने पर वो आपके पास ना हो तो बहुत पीड़ा होती है निराशा के साथ इच्छाएँ दम तोड़ने लगती हैं। यही इस कविता का सार है। कुछ दिनों पहले अपने गाँव थराली चमोली गई थी माँ के पास, तो नानी से भी मिलकर आई। जिस तरह उनकी हिम्मत और लड़खड़ाती साँसे लड़ झगड़कर उनका साथ निभा रही थी। वो देखकर मन को दुख भी हुआ और खुशी भी। खुशी उनके होने की, और दुख उनके इस तरह अकेले लड़ने का। पर ज़िंदगी से शिकायत भी करें तो क्या?
आपको ये कविता कैसी लगी मुझे जरूर बताइएगा ।
हँसते, मुस्कुराते, स्वस्थ रहिये। ज़िन्दगी यही है।
आप मुझसे इस आईडी पर संपर्क कर सकते हैं.
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© सुजाता देवराड़ी