वनाग्नि | साँसे तो साँसे होती है, चाहे इंसान की हो या फिर मासूम जानवरों की

उत्तराखंड में वनाग्नि

ची
रते हुए अंधकार को जब एक दिए की लौ रौशन करती है तो बेहद ख़ूबसूरत लगती है। हवन की  चिंगारी जब हवा में उड़ती हैं तो भी संतोषजनक लगती है। और धीमी आंच पर जब एक माँ अपने बच्चों के लिए खाना बनाती है। तो वही अग्नि उनकी सहेली बन जाती है। वही सहेली एक नवजात बच्चे को अपनी आंच से सेंक कर उसे मजबूत बनाती हैं। उसे सर्दियों में प्रहार करती उन हवाओं से बचाती है। बुजुर्गों के बुढ़ापे का सहारा है ये आग। जब कई लोग घर गाँव में बैठकर, एक जगह आग जलाकर, भुने हुए सोयाबीन, गुड़ और मूंगफली खाते- खाते एक दूसरे से बातें करते, अपना वक़्त गुजारते हैं। देवताओं के आव्हान करने के लिए बाकायदा अग्निदेव की पूजा कर, उनकी धुनि जलाई जाती है। और उसकी परिक्रमा की जाती है। 
 
आप भी सोच रहे होंगे कि, मैं ये सब क्यों कह रही हूँ । बिल्कुल सही सोच रहे हैं आप, लेकिन जरा सोचिए कि, आग या कोई भी चीज, बुरी तब तक नहीं होती, जब तक उसका मकसद सही हो, उसका इस्तेमाल सही हो। उसे सही तरीके से अपनी रोजमर्रा कि जरूरत के हिसाब से स्वीकार ना करें। क्योंकि एक सिक्के के दो पहलू होते हैं ये बात बिल्कुल सत्य है। 1(एक) रुपया देखा जाए तो कुछ नहीं है। लेकिन, किसी शुभ कार्य में उसके बिना शगुन पूरा नहीं होता है। उसी तरह हर इंसान की ज़िंदगी एक सिक्के की तरह है। उस ज़िंदगी से जुड़े हर पहलू एक सिक्के की तरह है। ठीक उसी तरह आग भी है। जो राहत भी देती है और तबाह भी करती है।
 
मुझे आज भी अच्छे से याद है अपना बचपन। जब एक बार हमारे गाँव में, जो कि चमोली जिले में पड़ता है। जंगल में आग लग गई थी। मैं क़रीब 15 या 16 साल कि रही होंगी तब। पूरे गाँव में हाहाकार मच गया था। क्योंकि, हमारे गाँव से जगल ज्यादा दूर नहीं है। तो आग को गाँव की तरफ बढ़ते देख सब बुरी तरह डर गए थे। आग इतनी बुरी तरह फ़ाइल गई थी। कि, काबू पाना मुश्किल हो गया था। हर व्यक्ति अपने -अपने घरों से बर्तनों में पानी लेकर आग बुझाने चले गए, हरी पत्तियों का झाड़ू बनाकर आग को बुझाने लगे। कुछ लोग पानी से, कुछ कपड़ों से। हर उस को वस्तु इस्तेमाल किया, जिससे कुछ हद तक ही सही, आग को गाँव तक फैलने से रोक सकें। डर क्या होता है, उस दिन पता चला। उस दिन, मैंने जानवरों को रोते देखा है। अपनी आँखों के सामने मरते देखा है। एक मां को अपने बच्चे की फिकर में तड़पते देखा है। चट्टानों से उनको गिरते, पड़ते, फिसलते देखा है। सूखे पेड़ों को जलकर जमीन गिरते देखा है। उन पेड़ों पर बने उन चिड़ियाओं को बिलकते देखा है। क्योंकि पेड़ों पर बना उनका आशियाना मेरी आँखों के सामने जलते देखा है। जो बंदर छलांग लगाने में माहिर थे, उन्हें घबराते देखा है। ऐसा लग रहा था। मानों जंगल में आग ने कोई युद्ध छेड़ दिया हो। और हर प्राणी अपनी जान बचाने के लिए, अपनी ही जान गँवाता जा रहा हो। छोटे छोटे कीट पतंगे, जो आग में जलकर राख होते जा रहे थे। वो देखकर आंसुओं को रोक नहीं पाई थी मैं। ऐसा लग रहा था कि, एक दुनिया उजड़ गई हो। बहुत कोशिश की सबने आग बुझाने की। पर कामयाबी मिली नहीं।  और हमारा पूरा जंगल आग से तबाह हो गया था। और ये दुष्कृत्य किसी और ने नहीं, किसी इंसान ने ही किया था। अपने स्वार्थ, अपने अहंकार को शांत करने के लिए। धिक्कार है ऐसे लोगों पर। जिन्हें अपने आगे किसी कि खुशियां बर्दास्त नहीं होती है। असल में जानवर वो लोग हैं, जो ऐसा घिनोंना काम करते हैं। सच कहूँ तो वो भयानक हादसा आज भी हर बार तब मेरी आँखों के सामने आता है। जब -जब मैं जंगलों में आग की खबर सुनती हूँ या देखती हूँ।
Image by Free-Photos from  Pixabay
वनाग्नि आज के समय कि बड़ी गंभीर समस्या है। आय दिन समाचारों, अखबारों, में यही खबर छपती है। कि, उत्तराखंड के इस जिले को आग ने अपनी चपेट में लिया है। उत्तराखंड जिले का वो जंगल आग की तबाही का शिकार बना। ये ख़बर अब बहुत आम बात हो चुकी है। क्योंकि वनों में लगने वाली आग, अब हर महीने आने वाली नई ऋतु कि तरह हो गई है। जब देखो जंगलों के जलने की खबर अखबारों कि मुख्य हैडलाईं होती है।
 
उत्तराखंड में विगत 4 वर्षों के आंकड़ों से गत वर्ष कि वनाग्नि दोगुनी थी। 2014 में यह आंकड़ा 384.5 हैक्टेयर था जबकि, पिछले एक साल में 4,423.35 हैक्टेयर जंगल आग से नष्ट होने के आँकड़े सामने आए हैं । वर्ष 2016 में पूरे उत्तराखंड में 2069 से अधिक स्थानों पर वनाग्नि की घटनाएं पाई गई हैं। अल्मोड़ा, चमोली, नैनीताल, पौड़ी, रुद्रप्रयाग, पिथोरागढ़, टिहरी और उत्तरकाशी जिलों को बुरी तरह से प्रभावित पाया गया। वर्ष 2016 में ही 5 महीने कि आग ने 2069 घटनाओं ने 4,424 हैक्टेयर हरित वन क्षेत्र को नष्ट करके अभिशापित कर दिया था।
विभागीय सूचनाओं के अनुसार 2019 में प्रदेश में आग लगने की कुल 70 घटनाएं हो चुकी है। इसमें गढ़वाल और कुमाऊं में 32-32 और वन्यजीव क्षेत्र में छह घटनाएं हो चुकी है। इसमें कुमाऊं में करीब 40 हेक्टेयर जंगल को नुकसान पहुंच चुका है। साथ ही करीब चार हेक्टेयर प्लांटेशन वाला क्षेत्र भी प्रभावित हुआ है।
9   अक्टूबर, 2018 को केंद्रीय पर्यावरण, वन तथा जलवायु परिवर्तन मंत्रालय और विश्व बैंक ने संयुक्त रूप से ‘भारत में वन अग्नि प्रबंधन को मजबूत बनाना’ नामक रिपोर्ट प्रस्तुत की। इस रिपोर्ट में राष्ट्रीय, राज्य तथा स्थानीय स्तर पर वन में लगने वाली आग की रोकथाम तथा प्रबंधन संबंधी नीतियों पर चर्चा की गयी थी। यह रिपोर्ट पांच व्यापक विषयों-नीतियों, संस्थान व क्षमता, सामुदायिक हिससेदारी, प्रौद्योगिकी तथा डाटा और सूचनाओं पर सिफरारिश प्रदान करता है।
जंगल कि आग ने ना केवल उत्तराखंड को प्रभावित किया है। बल्कि वैश्विक पर भी भारी नुकसान किया है। 
जंगलों में लगने वाली आग से वैश्विक स्तर पर प्रतिवर्ष कार्बन उत्सर्जन 2.5 बिलियन से 4 बिलियन टन के बीच है। भारत ने 2030 तक वन क्षेत्र में वृद्धि करके 2.5 बिलियन से 3 बिलियन टन का कार्बन सिंक निर्मित करने के लिए प्रतिबद्धता व्यक्त की है।
एक रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2003 से 2016 के बीच वनों में लगने वाली आग की घटनाओं में देश के 20 जिलों (अधिकतर उत्तर पूर्वी भारत में स्थित) का 40 प्रतिशत योगदान है। इसी प्रकार, शीर्ष 20 जिलों (मुख्यतः मध्य भारत में) का कुल आग प्रभावित क्षेत्र का 48 प्रतिशत हिस्सा है।
वनों में लगने वाली आग के क्या है कारण?
हमारी बहुत बड़ी गलतफहमी हैं कि, वनाग्नि के कारण केवल वनों को ही नुकसान पहुँचता है जबकि उसके दुष्प्रभाव इससे भी कई ज्यादा होते हैं। उपजाऊ मिट्टी के कटाव में जो तेजी वृद्धि हो रही है। उससे हम सब परिचित हैं। इतना ही नहीं जल संभरण के कार्य में भी बाधा उत्पन्न होती है। वनाग्नि का बढ़ता संकट वन्यजीवों के अस्तित्व के लिये समस्या उत्पन्न करता है। उनका जीवन नष्ट और असत व्यस्त हो जाता है। अगर किसी का बसा हुआ घर जल जाए तो, उस घर के निर्माण में पुनः कई समय कि जरूरत होती है। उसी तरह वनों का जलना, वन्य जीवों का घर जलना जैसा है। सांस्कृतिक टकराव नई रचनात्मकता और कलात्मक अभिव्यक्ति को प्रेरित करते हैं।
  1.  मज़दूरों द्वारा शहद, साल के बीज जैसे कुछ उत्पादों को इकट्ठा करने के लिये जान-बूझकर आग लगाना।
  2.  कुछ मामलों में जंगल में काम कर रहे मज़दूरों, वहाँ से गुज़रने वाले लोगों या चरवाहों द्वारा गलती से जलती हुई किसी वस्तु/सामग्री आदि को वहाँ छोड़ देना। जैसे बीड़ी सिगरेट और धूम्रपान जिनका संबंध आग से हो।
 
Image by Free-Photos from  Pixabay
 
  1.  आस-पास के गाँव के लोगों द्वारा दुर्भावना से आग लगाना।
  2.  पशुओं के लिए चारा उपलब्ध कराने हेतु आग लगाना। ताकि बरसात के बाद हरी खास बहुत मात्रा में उग सके
  3. बिजली के तारों का जंगलों से होकर गुज़रना। और जंगली जानवरों के उछलने से तारों का टूटना और आग लगना
  4.   प्रकृति के द्वारा भी आग लगना संभव है। – भयानक वज्रपात और बिजली का गिरना, पेड़ की सूखी पत्तियों के मध्य घर्षण उत्पन्न होना, आदि की वज़ह से वनों में आग लगने की घटनाएँ सामने आती हैं।
  5.   लेकिन अगर मैं वर्तमान कि बात करूँ तो, वनों में अतिशय मानवीय अतिक्रमण/हस्तक्षेप के कारण इस प्रकार की घटनाएं देखने को मिलती है। जिससे कई नकारात्मक प्रभाव सामने आते हैं। जैसे -जैव-विविधता को हानि,प्रदूषण की समस्या में वृद्धि, खाद्य श्रृंखला में असुंतलन, आर्थिक क्षति।
 
कभी ये सोच कर भी मेरी रूह कांप जाती है कि, जब कोई आग कि लपेटों में झुलसता है तो, क्या बीतती होगी उस पर। हमारे घरों में कभी छोटी -मोटी आग की वारदात होती है तो,  तहलका मच जाता है। टाइम पर अग्नि सुरक्षा कर्मी पहुंचकर उस हालात को जैसे -तैसे संभाल कर हमें सांत्वना देते हैं। हम अपना आपा खो जाते हैं उस वक़्त। ऐसा लगता है, मानो डर साक्षात यम का रूप लेकर हमारे समक्ष खड़ा हो। शुक्रगुज़ार होना चाहिए हमें ईश्वर का कि, हम लोग इंसान हैं। हमें उन्होंने ऐसी भाषा को तोहफ़े में दिया है। जिसे हर इंसान, हर जानवर समझ सकता है। हम अपना दर्द बयान कर सकते हैं। लेकिन उन मासूम बेकसूर जानवरों, कीट पतंगों, चिड़ियाओं का क्या, जो हमसे हमारी भाषा में बात करके ये तक नहीं कह सकते कि, उन्हें भी दर्द होता है। उसका भी आशियाना है। उनके भी बच्चे हैं, उनकी अपनी ज़िंदगी, अपना परिवार, अपनी ग्रहस्ती है। और हम लोग जाने अनजाने में ऐसी गलती कर जाते हैं, जो एक पल में उनका घर संसार सब तबाह कर देती है।
 
समाधान
दुनियाँ में ऐसी कोई समस्या नहीं है, जिसका कोई हल या समाधान न हो।  मैं ये तो नहीं कहूँगी, कि वनों में लगने वाली आग पर नियंत्रण पाना आसान है। पर पूरी तरह ना सही, कुछ हद तक तो कुछ कोशिशें हमे कामयाबी दिला  ही सकती है। चलिए देखते हैं कि, हम किस तरह वनाग्नि पर नियंत्रण पा सकते हैं।
  1.  वन अधिकारियों और स्थानीय जनजातियों द्वारा आपसी बातचीत से इस मुद्दे को सुलझाया जाना चाहिये और प्रत्येक गाँव के निवासियों को, आपसी मतभेद त्यागकर वनों को नुकसान पहुँचने से खुद ही रोकना चाहिए। ताकि भविष्य में ऐसी किसी भी दुर्घटना को होने से रोका जा सके।
  2. वनाग्नि को फैलने से रोक पाना संभव नहीं है। अत: इसके लिये अग्नि रेखाएँ (Fire lines) निर्धारित किये जाने की आवश्यकता हैं। वस्तुतः अग्नि ज़मीन पर खिंची वैसी रेखाएँ होती हैं जो कि वनस्पतियों तथा घास के मध्य विभाजन करते हुए वनाग्नि को फैलने से रोकती हैं।
  3.  गाँव के लोगों को जंगली जानवरों के डर से बचने के लिए सरकार कि मदद लेनी चाहिए न कि, वनों में आग लगाकर जीवों को रोकना ।
  4.   पशुओं के चारे के लिए, घरों के आस -पास नैफियर घास को उगाकर चारे कि पूर्ति करनी चाहिए, ताकि आपकी सोच जंगल को आग कि गिरफ्त में जाने से रोक पाए।
  5. लकड़ी के लिए पेड़ों का कटाव न करके, जंगल से सूखी लकड़ियों को लाकर जंगल को आग के खतरे से रोकना एक बेहतर प्रयास होगा।
  6. वन विभाग अधिकारियों को, समय- समय पर वन निरीक्षण के लिए भेजा जाना चाहिए।  
  7.  गाँव कस्बों के लोगों को वनाग्नि से होने वाले नुकसानों से अवगत कराना चाहिए।
  8.  स्कूलों में बच्चों को भी वनाग्नि के खतरों की जानकारी देनी चाहिए, ताकि बच्चों से माता पिता तक ये सूचना आसानी से पहुंचाई जा सके।
  9.   राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण (National Green Tribunal – NGT) द्वारा भी पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय पर देश के सभी राज्यों में वनाग्नि के प्रबंधन के विषय में कोई ठोस योजना बनानी चाहिए।
सी तरह अगर जंगल जलते रहे, तो इंसान का मरना तय है। हरे भरे जंगल ही हमारी साँसों को शुद्ध करती है। या यूं कहें कि, अगर जंगह तबाह हो गए तो हमारे शरीर में ऑक्सीजन की मात्रा भी खत्म हो जाएगी। और बिना ऑक्सीजन के जीना संभव ही नहीं है। तकनीकी और विज्ञान ने देश को नई ऊँचाइयाँ जरूर दिलाई है। पर साथ में पर्यावरण को भी काफी नुकसान पहुंचाया है। वायु इतनी प्रदूषित हो चुकी है। कि, हवं में सांस लेना दिन प्रतिदिन मुश्किल होता जा रहा है। ऐसे में जंगल ही है। जो इस वातावरण को संतुलित बनाए रखता है। और इस जंगल को अपने लिए ही सही। बचा लेने में ही हमारी भलाई है। वरना हमारी ज़िंदगी को हम खुद ही दिन प्रतिदिन खतरे के दलदल में डालते जा रहे हैं।  हमारे द्वारा किया गया हर प्रयास हमारे उत्तराखंड को ही नहीं, देश में हजारों जंगलों को आग कि चपेट से बचा सकता है। और इन वनों से हम अपने लिए एक शुद्ध वातावरण और खुशहाल ज़िंदगी मांग सकते हैं 
जिसे इंसानी भाषा में जंगल कहा जाता है। वो दरअसल किसी की दुनिया हैं। जैसे हमारी दुनियाँ में इंसान रहते हैं, तो उनकी दुनिया में ऐसे प्राणी रहते हैं, जिनका गुजर -बसर हमारी दुनिया में मुमकिन नहीं है। लेकिन उनके बगैर भी हमारी दुनिया पूरी तरह से सम्पन्न नहीं है। न ही हमारे बगैर उनकी। 
साँसे तो साँसे होती है, फिर चाहे इंसान के अंदर हो या जानवर । उन साँसों कि रक्षा करना हर प्राणी का कर्तव्य है।
समाप्त
आप भी अपना निजी स्वार्थ त्यागकर वनाग्नि को रोकने में अपना सहयोग दें. और इस लेख के विषय में मुझे अपनी राय जरूर बताइयेगा।
नोट- यह लेख हलन्त पत्रिका के दिसंबर अंक में भी प्रकाशित हो चुका है।
हँसते, मुस्कुराते, स्वस्थ रहिये। ज़िन्दगी यही है।  

आप मुझसे इस आईडी पर संपर्क कर सकते हैं.
sujatadevrari198@gmail.com
© सुजाता देवराड़ी

x

Leave a Reply

%d bloggers like this: